श्री दुर्गा नवरात्रि व्रत कथा - नवरात्री उत्स्व क्यों मनाया जाता है

श्री दुर्गा नवरात्रि व्रत कथा  



दुर्गा पूजन  

  1. यदि अखंड दीपक प्रज्वलित करके नौ तक प्रज्वलित रखना चाहते हो तो इसके लिए बड़े दीपक में घी भरा रहे बत्ती निरंतर प्रज्वलित रहे। 
  2. गंगाजल अथवा शुद्ध जल से तीन बार प्रक्षालित करले (धोकर) अथवा चावल भी धो ले तो यह अक्षत हो जायेगा। 
  3. पंचोचर से श्री गणेश जी का  पूजन करे। 
  4. यदि श्री दुर्गा जी की स्वर्ण या रजत  हो तो उसे सिंहासन पर अथवा जल पूर्ण कलश पर स्थापित करके पूजन करे। 
  5. यदि गणेश जी की मृतिका (मिट्टी ) की प्रतिमा हो तो उसका दर्पण में (प्रतिबिम्ब) देखकर तथा स्थापना स्थान को साफ़ करले एवं स्वयं को शुद्धकर था शुद्ध वस्त्र पहन कर प्रतिमा की स्थापना करे। 


श्री दुर्गा नवरात्रि कथा एवं व्रत 

व्रत विधान :- उपवास अथवा फलाहार की इस व्रत में कोई विशेष व्यवस्था या नियम नहीं है।  प्रातः नित्य कर्म से निर्वत होकर तथा स्नान करके मंदिर में अथवा घर पर ही नवरात्र काल में श्री दुर्गा जी का ध्यान करके श्रद्धा भक्ति सहित उनकी कथा प्रारम्भ की जाये।  यह व्रत तथा कथा - विधान कुंवारी कन्याओ के लिए विशेष लाभदायक है।  भगवती दुर्गा की कृपा से समस्त कष्टों, अरिष्टों तथा विघ्न बधाओ का निवारण होता है। कथा की समाप्ति  पर दुर्गे माता तेरी सदा जय का उच्चारण  के चरणों में नमन करे। 

कथा विधान :- बृहस्पति जी बोले - हे ब्रह्मा जी आप धर्मात्मा कुशार्ग बुद्धि तथा चारो वेदो के ज्ञाता तथा श्रेष्ठ है, हे प्रभो कृपया मेरी शंकाओ का समाधान करे।  चैत्र, आश्विन, माघ एवं आषाढ़ माह के शुक्ल पक्ष में नवरात्रि व्रत तथा उत्स्व क्यों मनाये जाते है - हे प्रभो इस व्रत का अनुष्ठान विधान तथा फल क्या है एवं सर्वपरथम इस व्रत  पालन किसने किया। 
बृहस्पति जी का यह प्रश्न निवेदन सुनकर ब्रह्माजी बोले - हे देवगुरु बृहस्पति आपने लोकहित से प्रेरित होकर यह बड़ा ही उत्तम प्रश्न किया है।  जो मनुष्य सम्पूर्ण मनोकामनाओ  को पूर्ण करने वाली देवी भगवती दुर्गा, महादेवजी, सूर्य भगवान का व्रत करते है वे मनुष्य धन्य है, यह नवरात्रि  व्रत समस्त मनोरथो का पूरक है।  
        श्रद्धा भक्ति सहित इसका अनुष्ठान करने से - पुत्र प्राप्ति की कामना, धन प्राप्ति की लालसा, विद्या प्राप्ति की इच्छा इत्यादि सभी कामनाये पूर्ण होती है।  इस व्रत से रोग नाश होकर आरोग्य प्राप्त होता है, कारागार से मुक्ति मिलती है मनुष्य को समस्त आपत्तियों-विपत्तियों से मुक्ति प्राप्त हो कर उसका घर सम्पूर्ण सम्पत्तियो तथा धन-धान्य से पूर्ण हो जाता है।  बंध्या तथा काक-बंध्या स्त्रिया इस व्रत पालन से पुत्रवती हो जाती है।  समस्त दुर्लभ मनोकामनाओ की पूर्ति होती है, ऐसा कोई मनोरथ नहीं है जो इस व्रत की कृपा से पूर्ण न हो सके।  जो मनुष्य देव दुर्लभ मानव काया को प्राप्त करके भी इस उत्तम व्रत का अनुष्ठान नहीं करते है वे अनेको कष्टों और दुखो को भोगते है।  इस व्रत से विमुख मनुष्यो को कुष्ठ व्याधि, अंग-भंग या  अंग हीनता हो सकती है।  ऐसे मुर्ख अनेको दुखो में पड़ सकते है। 
        देवी दुर्गा के इस उत्तम व्रत अनुष्ठान से विमुख निर्दयी ओर कुटिल मनुष्य क्षुधा और ऋण से पीड़ित होकर पृथ्वी पर भटकते है तथा मुर्ख व् निस्तेज हो जाते है।  जो सौभाग्यवती स्त्रिया भूल या प्रमोदवश इस व्रत पालन  का नहीं करती है।  वे पति से हीन  होकर अनेको कष्टों और व्याधियों को भोगती है।  यदि व्रत धारण करने वाला मनुष्य दिन भर उपवास न कर  सके तो उसे एक बार भोजन करना चाहिए तथा उस दिन बंधु  बांधवो सहित भक्ति पूर्वक दुर्गा जी की  नवरात्रि व्रत का श्रवण करना चाहिए। 
        हे बृहस्पति इस व्रत का सर्व प्रथम अनुष्ठान करने वाले भक्त का पवित्र इतिहास मै तुम्हे सुनाता हु तुम श्रवण करो। ब्रह्मा जी के ऐसे प्रिय वचन सुनकर बृहस्पति जी बोले - हे लोककल्याण कर्त्ता ब्रह्मा जी कृपया मुझे इस व्रत के विषय में सविस्तार सम्पूर्ण विधान बताये मै पूर्ण एकाग्र-चित होकर श्रवण कर रहा हूँ।  हे प्रभो, मै आपका शरणागत हूँ मुझ  पर कृपा करे। 
        ब्रह्मा जी बोले देवी भगवती दुर्गा का 'अनाथ' नाम का अनन्य भक्त ब्राह्मण 'पाटिल' नाम के मनोहर नगर में रहता था।  उस ब्राह्मण के यहां अत्यंत सूंदर एवं समस्त सदगणो से युक्त - ब्रह्मा की प्रथम रचना के समान उत्तम, एक यथार्थ - सुमति नाम की कन्या ने जन्म लिया। 
        शुक्ल पक्ष के चन्द्रमा की चन्द्रकला वृद्धि के समान वह कन्या पिता के उत्तम लालन-पालन में, सहेलियों के साथ बालक पन में खेलती हुई आयु वृद्धि को प्राप्त करने लगी।  कन्या का पिता दुर्गा जी की पूजा और ध्यान नियमित रूप से  प्रतिदिन किया करता था।  पिता के इस पूजा काल में वह भी नियमित रूप से उपस्थित रहती थी। 
        एक दिन सुमति अपनी सहेलियों के साथ खेल में इतनी तल्लीन हो गयी की वह पिता के साथ देवी दुर्गा जी की पूजा में उपस्थित ही नहीं हो पायी।  
        पुत्री की असावधानी पर पिता बहुत क्रोधित हुआ और उससे बोला-अरि दुष्ट पुत्री आज प्रातः काल तुमने भगवती दुर्गा की पूजा अर्चना नहीं की है इस कारणवश मैं तेरा विवाह किसी कुष्ठ रोगी अथवा दरिद्र मनुष्य के साथ करुगा। पिता के ऐसे कटु वचन सुनकर सुमति बहुत दुखी हुई  और बोली हे पिता मैं आपकी कन्या हूँ तथा सब प्रकार से आपके आधीन हूँ आप जैसा चाहो वैसा करो राजा, रंक, कुष्ठी, दरिद्र अथवा आप जिसके साथ चाहो मेरा विवाह कर दो पर मेरा यह अटल विश्वास है की जो मेरा भाग्यलेख होगा अथार्थ जो भाग्य में लिखा होगा वही होगा। मनुष्य अनेको प्रकार के मनोरथो की कामना करता है लेकिन उसे वही प्राप्त होता है जो ईश्वर ने उसके लिए लिखा होता है। मनुष्य को उसके कर्म के अनुसार फल प्राप्त होता है क्योकि मनुष्य कर्म करने में तो स्वतंत्र है लेकिन फल तो उसे उसके कर्म के अनुसार ईश्वर द्वारा दिया जाता है।  अपनी कन्या के ऐसे सख्त और कटु वचन सुनकर वह ब्राह्मण ऐसे ही और क्रोधित हो गया जैसे घी डालने से अग्नि और तेज जलने लगती है।  
        वास्तव में उस ब्राह्मण ने अपनी पुत्री का विवाह एक कुष्ठी के साथ कर दिया और गुस्से होकर पुत्री से कहा - देखना है कि केवल भाग्य के बल पर क्या होता है अब यह कुष्टी ही तेरा पति है, जाकर इसके साथ अपने कर्म का फल भोग।  पिता के ऐसे कटु वचन सुनकर सुमति बहुत दुखी हुई, वह मन में विचार करने लगी कि आह मेरा घोर दुर्भाग्य है जिस कारण मुझे ऐसा पति प्राप्त हुआ। अपने दुर्भाग्य और दुःख पर इस प्रकार रोती हुई सुमति अपने पति के साथ वन में चली गयी। वन में वह रात उन्होंने बड़े कष्ट और संताप में व्यतीत की। उस निर्धन कन्या की ऐसी दुखद दशा देख कर भगवती देवी दुर्गा पूर्व - पुण्य प्रभाववश प्रकट हो गयी और उस दुखी ब्रह्मणी सुमति से बोली हे कन्या मैं तेरे ऊपर प्रसन्न हूँ तू मुझसे मन वांछित वर मांग ले।  मैं तुझसे प्रसन्न होकर मन वांछित वरदान करती हूँ।  देवी दुर्गा के कहे हुए वचनो को सुनकर कन्या कोतुहल पूर्वक पूछने लगी हे देवी आप कोन है तथा मेरी किस सेवा से मुझ पर प्रसन्न हुई है कृपया सम्पूर्ण वृतांत स्पष्ट करे। 
        भगवती दुर्गा ने कहा - मैं ही आदि शक्ति हूँ और मैं ही सरस्वती, ब्रह्म -विद्या, भवानी दुर्गा हूँ। मैं मनुष्यो के अच्छे कर्मो से खुश होकर उनके दुःख - कष्ट को दूर करती हूँ तथा सुख ऐश्वर्य प्रदान करती हूँ। हे कन्या मैं तुम पर तुम्हारे - पिछले जन्म के किये हुए अच्छे कर्मो के प्रभाव से प्रसन्न हूँ।  मैं तुम्हारे पिछले जीवन चरित्र को बताती हूँ ध्यानपूर्वक सुनो -
        तुम अपने पिछले जन्म में एक भील की अत्यंत पतिव्रता पत्नी थी।  एक दिन तुम्हारे पति ने चोरी की और चोरी करने के कारण सिपाहियों ने तुम्हारे पति और तुम्हे बंदी गृह (जेल) में कैद कर दिया। सिपाहियों ने कैद के समय तुम दोनों को भोजन भी नहीं दिया। उस समय नवरात्री काल था, इस प्रकार नवरात्री के समय में तुम दोनों ने कुछ नहीं खाया और न ही जल पिया। उस प्रकार नौ दिनों तक निराहार रहने के कारण तुम्हारे द्वारा नवरात्रि व्रत का पालन हो गया।  
        हे कन्या तुम्हारे पिछले जन्म के किये हुए इस व्रत पालन के प्रभाव से प्रसन्न होकर मैं तुम्हे मनवांछित वर देने के लिए प्रकट हुई हूँ। इस प्रकार देवी दुर्गा के कहे वचनो को सुनकर देवी दुर्गा को कन्या ने भक्तिपूर्वक प्रणाम किया और कहा  -
        हे देवी आपको बार बार नमस्कार है यदि आप मुझ पर प्रसन्न है तो कृपा कर मेरे पति को कुष्ट मुक्त कर दो। कन्या के ऐसे निवेदन करने पर देवी दुर्गा ने कहा - हे कन्या उन दिनों तुमने जो नवरात्री व्रत का पालन किया था उसमे से अपने एक दिन के व्रत का पुण्य फल तुम अपने पति के कुष्ट मुक्त होने के लिए अर्पित करो। मेरी प्रभाव शक्ति से तुम्हारा पति कुष्ठ रोग से मुक्त होकर सोने के समान कांतिवान  हो जाएगा। भगवती देवी दुर्गा के कहे हुए ऐसे वचनों को सुनकर सुमति बहुत खुश हुई और अपने पति का कुष्ठ मुक्त करने के लिए सुमति ने कहा ठीक है, सुमति के ऐसा कहते ही देवी दुर्गा की प्रभाव शक्ति से सुमति के पति का शरीर कुष्ठ रोग से मुक्त होकर अत्यंत कांतिवान हो गया उसके पति की काया इतनी तेजस्वी हो गयी कि उसके सामने चंद्रमा की कान्ति भी कम लगने लगी। य़ह चमत्कार देख कर सुमति देवी दुर्गा को समझ गयी और देवी दुर्गा की स्तुति करने लगी। पति के मनोहर शरीर को देखकर सुमति ने देवी दुर्गा को अत्यंत पराक्रमी समझा। वह देवी दुर्गा की स्तुति करने लगी और बोली हे देवी दुर्गे दुर्गति नाशिनी अथवा आप दुर्गति को दूर करने वाली है, हे त्रैलोक्य संताप हारिणि - अथवा आप तीनों लोकों का संताप हरने वाली है। हे देवी दुर्गे सर्व दुख हारिणि समस्त दुखों का नाश करने वाली है, हे दुर्गे आरोग्य दायिनी अथवा आप रोगी प्राणियों को आरोग्य देने वाली है, प्रसन्न होने पर आप मनवांछित वर देने वाली है तथा सर्व दुष्ट संहारिणी है - अथवा दुष्ट मनुष्यों का नाश करने वाली हो। हे देवी दुर्गे आप पूरे संसार की माता तथा पिता है। हे माँ अम्बे माँ जगदम्बे मुझ निरपराध अबला को मेरे पिता ने कुष्ठ रोगी के साथ विवाहित कर घर से निकाल दिया था। हे देवी दुर्गे आपने ही कृपा करके इस विपत्ति रूपी समुद्र से मेरा उद्गार किया है। हे देवी मैं आपको बार बार नमस्कार करती हूं मुझ दीन अबला की रक्षा करो। 
        ब्रह्मा जी बोले हे ब्रहस्पति इस प्रकार भक्ति भाव समेत उस कन्या सुमति ने देवी दुर्गा की अनेकों प्रकार से स्तुति की। देवी दुर्गा उसकी स्तुति से पूर्ण संतुष्ट और खुश होकर कहने लगी कि हे कन्या तेरे उदालक नाम का जितेन्द्रिय, धर्मात्मा, कीर्तिमान, वैभवशाली यशस्वी पुत्र शीघ्र ही उत्पन्न होगा। 
        इस कथन के पश्चात देवी दुर्गा ने उस सुमति कन्या से पुनः कहा कि हे कन्या यदि तेरी कोई अन्य इच्छा या कामना हो तो मैं वह भी पूरी करने के लिए तैयार हूं। तुम पुनः मुझसे मनवांछित वर मांग सकती हो, देवी दुर्गा के कहे ऐसे वचनों को सुनकर सुमति बोली - हे जगत माता देवी दुर्गे आप मुझ कृपालु एवं खुश हो तो कृपया मुझे नवरात्रि व्रत का सम्पूर्ण विधान बताएं। जिस विधि से नवरात्रि व्रत को रखने और उसका पालन करने से आप खुश होती है कृपया वह विधि फल सहित मुझे बताने की कृपा करें। इस प्रकार उस कन्या के ऐसा निवेदन करने पर देवी दुर्गा बोली :-
        हें कन्या मैं तुम्हें सर्वपाप नाशिनी परमोतत्म नवरात्रि व्रत की विधि बताती हू ध्यान से सुनो इससे श्रवण मास से सम्पूर्ण पापों का नाश होकर मोक्ष प्राप्त होता है। अश्वनी मास के शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से लेकर नौ दिन तक विधान सहित इस व्रत का पालन करना चाहिए। यदि पूरे दिन का व्रत सम्भवत ना हो तो दिन मे एक बार भोजन लेकर भी व्रत का पालन करे। पढ़े लिखे ब्राह्मण से परामर्श लेकर घट स्थापित किया जाये।  मिटटी की वाटिका बनाकर उसमे जौं बोकर अंकुरित जौं को प्रतिदिन जल दे।  देवी दुर्गा, महालक्ष्मी तथा महा सरस्वती देवी की मूर्ति  लाकर नित्य  प्रतिदिन विधि विधान सहित इनकी पूजा की जाये।   लाल कनेर के फूलो से देवी को पुष्पांजलि दे तथा अधर्य देने से यश कीर्ति प्राप्त होती है तथा दाख से अधर्य देने पर अभीष्ट कार्य सिद्धि प्राप्त होती है।  आंवले फल से अधर्य द्वारा सुख प्राप्ति, केले से अधर्य देकर विधि विधान हवन करना चाहिए।  गेंहू, तिल, जौं, विल्ब, नारियल, दाख, खांड, शहद, घी इत्यादि से हवन करने से यश कीर्ति प्राप्त होती है तथा केले से हवन करने से पुत्र प्राप्त होता है।  कमल से राज सुख और सम्मान प्राप्त होता है।  दाखो से हवन करने से सुख सम्पन्नता प्राप्त होती है। नारियल, शहद, जौं, तिल, खांड, घी इत्यादि से हवन करने से मनवांछित वस्तुओ की प्राप्ति होती है।   
        नवरात्री व्रत रखने और पालन करने वाला ध्रमात्मा मनुष्य इस प्रकार विधि विधान सहित हवन करके आचार्य को प्रणाम करे तथा यज्ञ को सिद्धि के निमित आचार्य की दक्षिणा दान करे।  यह संशय रहित धुर्व सत्य है की इस विधि विधान सहित जो मनुष्य इस महा व्रत का पालन करते है उनके सम्पूर्ण मनोरथ सिद्ध होते है। नवरात्री व्रत की नौं दिन  अवधि में जो कुछ भी दान पुण्य किया उसका बहुत सारा फल मिलता है। इस नवरात्री व्रत के पालन करने से ही अश्वमेघ यज्ञ फल की प्राप्ति होती है। हे कन्या इस उत्तम महाव्रत की जो समस्त कामनाओ को पूर्ण करने वाला है तीर्थ स्थान में, मंदिर या पवित्र एकांत स्थल या पूजा घर में ही विधि विधान सहित पालन करे।  ब्रह्माजी बोले - हे बृहस्पति इस प्रकार कन्या को नवरात्री व्रत का विधि विधान और माहात्म्य तथा फल बताकर भगवती देवी दुर्गा अंतर्ध्यान हो गयी। ब्रह्माजी बोले - हे बृहस्पति जो पुरुष या स्त्री इस  व्रत का विधि विधान सहित भक्ति पूर्वक पालन करते है वे इस लोक में समस्त सुखों को प्राप्त कर अंत में दुर्लभ मोक्ष पद प्राप्त करते है। हे बृहस्पति मैंने इस नवरात्री व्रत को सम्पूर्ण माहत्म्य सहित तुम्हे बताया है। ब्रह्माजी के यह प्यारे वचन सुनकर बृहस्पति जी आनंद और ख़ुशी से रोमांचित हो गए तथा बृहस्पति जी ने ब्रह्माजी से निवेदन किया - हे ब्रह्माजी आपने अत्यंत कृपा करके मुझे अमृत के समान मोक्षदायी नवरात्री व्रत का महात्म्य सुनाया , हे प्रभो आप के अतिरिक्त और कोन इस माहात्म्य का श्रवण लाभ दे सकता है आपको बारम्बार नमस्कार है।  ब्रह्माजी बोले - हे बृहस्पति आपने समस्त मनुष्यो का कल्याण करने वाले इस अलौकिक नवरात्रि व्रत का महात्म्य पूछा अतएव आप धन्य है। आदिशक्ति देवी दुर्गा समस्त लोको का पालन करने वाली है।  देवी दुर्गा के महात्म्य और प्रभाव के सम्पूर्ण स्वरूप को जान पाना सम्भव नहीं है।  

श्री दुर्गा चालीसा 

नमो नमो दुर्गे सुख करनी।  नमो नमो अम्बे दुःख हरनी।। 
निरंकार हैं ज्योति तुम्हारी।  तिहुँ लोक फैली उजियारी।। 
शशि ललाट मुख महा विशाला।  नेत्र लाल भृकुटि विकराला।। 
रूप मातु को अधिक सुहावे।  दर्श करत जान अति सुख पावे।। 
संसार शक्ति ले कीना।  पालन हेतु अन्न धन दीना।। 
अन्नपूर्णा हुई जग पला।  तुम ही आदि सुंदरी बाला।। 
प्रलय  काल सब नाशन हारी।  तुम गौरी शिव शंकर प्यारी।।
शिव योगी तुम्हरे गन गावें।  ब्रह्मा विष्णु तुम्हें नित ध्यावे।। 
रूप सरस्वती को तुम धरा।  दे सुबुद्धि ऋषि मुनिन उबारा।। 
धरयो रूप नरसिंह को अम्बा।  परगट भई फाड़ कर खम्बा।। 
रक्षा करि प्रहलाद बचायो।  हिरणाकुश को स्वर्ग पठायो।।
लक्ष्मी रूप धरो जग माहीं।  श्री नारायण अंग समाहीं।।
क्षीरसिन्धु में करत विलासा।  दया सिंधु दीजै मन आसा।।
हिंगलाज में तुम्हीं भवानी।  महिमा अमित न जात बखानी।।
मातंगी अरु धूमावति माता।  भुवनेश्वरी बगला सुख दाता।।
श्री भैरव तारा जग तारिणी।  छिन्न भाल भव दुःख निवारिणी।।
केहरि वाहन सोह भवानी।  लांगुर वीर चलत अगवानी।।
कर में खप्पर खड्ग विराजै। जाको देख काल डर भाजै।।
सोहै अस्त्र और त्रिशूला।  जाते उठत शत्रु हिय शुक्ला।।
नगर कोट में तुम्हीं विराजत।  तिहुँ लोक में डंका बाजत।।
शुम्भ निशुम्भ दानव तुम मारे।  रकत बीज शंखन संहारे।।
महिषासुर नृप अति अभिमानी।  जेहि अघ भार माहि अकुलानी।।
रूप कराल काली को धारा।  सेन सहित तुम तिहि संहारा।।
परी गाढ़ संतन पर जब जब।  भई सहाय मातु तुम तब तब।
अमर पूरी अरु वासव लोका।   तव महिमा सब रहे अशोका।।
ज्वाला में है ज्योति तुम्हारी।  तुम्हे सदा पूजें नर नारी।।
प्रेम भक्ति से जो यश गावे।  दुःख दारिद्र निकट नहीं आवे।। 
ध्यावे तुम्हें जो नर मन लाई।  जन्म मरण ताको छुटी जाई।।
जोगी सुर मुनि कहत पुकारी।  योग न हो बिन शक्ति तुम्हारी।।
शंकर आचारज तप कीनों।  काम अरु क्रोध जीटी सब लीनों।।
निशि रूप को मरम न पायो।  शक्ति गई तब मन पछितायो।।
शरणागत हुई कीर्ति बखानी।  जय जय जय जगदम्बा भवानी।।
भई प्रसन्न आदि जगदम्बा।  दई शक्ति नहिं कीं विलम्बा।।
मोको मातु कष्ट अति घेरो।  तुम बिन कौन हरे दुःख मेरो।।
आशा तृष्णा निपट सतावे।  मोह मदादिक सब विनशावें।।
शत्रु नाश कीजै महारानी।  सुमिरौं इकचित तुम्हें भवानी।।
करो कृपा हे मातु दयाला।  ऋद्धि सिद्धि दे करहु निहाला।।
जब लगि जिऊँ दया फल पाऊं।  तुम्हारो यश मैं सदा सुनाऊँ।।
दुर्गा चालीसा जो कोई गावे।  सब सुख भोग परमपद पावै।।
देवीदास शरण निज जानी।  करहु कृपा जगदम्बा भवानी।।

'' दोहा ''
शरणागत रक्षा करें , भक्त रहे निःशंक। 
मैं आया तेरी शरण में , मातु लीजिये अंक।।


आरती श्री दुर्गा जी की 

जय अम्बे गौरी मैय्या, जय श्यामा गौरी।  तुमको निशदिन ध्यावत हरी ब्रह्मा शिवजी।।
मांग सिंदूर विराजत टीको मृगमद को।   उज्जवल से दाऊ नैना चंद्र बदन नीको।।
कनक समान कलेवर रक्ताम्बर राजे।  रक्त पुष्प गलमाला कंठन पर साजे।।
केहरि वाहन राजत खड्ग खप्परधारी।  सुर नर मुनिजन सेवत तिनके दुःखहारी।।
कानन कुण्डल शोभित नासाग्रे मोती।  कोटिक चंद्र दिवाकर राजत सम ज्योति।।
शुम्भ विशुम्भ बिडारे महिषासुर घाती।  धूम्र विलोचन नैना निशदिन मदमाती।।
चण्ड मुण्ड संहारे शोणित बीज हरे।  मधु कैटभ दोऊ मारे सुर भय हीन करे।।
तुम ब्राह्मणी रुद्राणी तुम कमला रानी।  आगम निगम बखानी तुम शिव पटरानी।।
चौसंठ योगिनी मंगल गावत नृत्य करत भैरु।  बाजत ताल मृदंगा अरु बाजत डमरू।।
तुम ही जग की माता तुम ही हो भरता।  भक्तन की दुःख हर्ता सुख सम्पत्ति करता।।
भुजा चार अति शोभित खड्ग खप्परधारी।  मनवांछित फल पावत सेवत नर नारी।।
कंचन ढाल विराजत अगर कपूर बाती।  श्री मालकेतु में राजत कोटि रतन ज्योति।।
माँ अम्बेजी की आरती जो कोई नर गावै।  कहत शिवानंद स्वामी सुख संपत्ति पावै।।

आरती श्री काली माता की 

अम्बे तू है जगदम्बे काली, जय दुर्गे खप्पर वाली। 
तेरे ही गन गावै भारती 
ओ मैया हम सब उतारे  तेरी आरती। 
तेरे भक्त जनो पर भीड़ पड़ी है भारी माँ, 
दानव दल पर टूट पड़ो माँ करके शेर सवारी। 
सौ सौ सिंहो से बलशाली अष्ट भुजाओ वाली, 
दुखियो के दुखड़े निवारती।  
ओ मैया हम सब उतारे  तेरी आरती। 
माँ बेटे का है इस जग में बड़ा ही निर्मल नाता माँ, 
पूत कपूत सुने है माता ना सुनी कुमाता। 
सब पर करुणा दर्शाने वाली, अमृत बरसाने वाली। 
दुखियो के दुखड़े निवारती। 
ओ मैया हम सब उतारे  तेरी आरती। 
नहीं मांगते धन और दौलत, ना चांदी न सोना माँ ,
हम तो मांगे माँ तेरे मन में एक छोटा सा कोना माँ। 
सबकी बिगड़ी बनाने वाली लाज बचाने वाली, सतियो के सत को सवांरती। 
ओ मैया हम सब उतारे  तेरी आरती।
छोटा सा परिवार हमारा इसे बनाये रखना माँ,
एक बार आकर हाथ दया का रखना माँ। 
ओ मैया हम सब उतारे  तेरी आरती।  

दुर्गा माता आपकी सदा ही जय 

धन्यवाद 
आपका नवी 

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