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क्या भगवान हमें बिन मांगे सब दे देते है - Does God Help Us

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क्या भगवान हमें बिन मांगे सब दे देते है  सब कहते है की भगवान् से कुछ मत मांगो वह बिन मांगे ही दे देते है लेकिन भगवान् को ये बताना पड़ता है की हमें क्या चाहिए।  भगवान् सुनते तो सब की है और सबको फल भी देते है किसी को समय से पहले मिल जाता है और किसी अंत में।  लेकिन हम यह बात इसलिए कह रहे है की हमें भगवन  से मांगना क्यों जरुरी है।  हम सब जानते है की हमारे मन में अनेक  इच्छाएं जागरूक रहती है और थोड़ी थोड़ी देर में हमारी इच्छाएं बदल जाती है।  और इन इच्छाओ को काबू कर पाना हमारे हाथ में थोड़ी न है।  क्योकि हमें बनाया ही ऐसा गया है की हम इच्छाएं करते रहते है और समय समय पर वह इच्छाएं बदल भी जाती है।  अब जब भगवान को हम सबको फल देना होगा तो उन्हें यह कैसे पता लगेगा की हमारे मन में कौन सी इच्छा चल रही है।  क्योकि भगवन जानते तो सब है लेकिन वो  भी तो चाहते है  की मेरा भक्त मुझसे कुछ मांगे कही मैंने बिना मांगे दे दिया और उसे  वह अच्छा न लगा तो। और हमारी इच्छाएं ही इतनी है की भगवान भी हमारी इच्छाओ को देख कर भ्रमित हो जाते है। आपने टीवी पर देखा होगा और पुराणों में पढ़ा भी होगा जब ऋषि मुनि सालो साल तप किया कर

मेरा गांव है शहर से निराला - गांव की सभ्यता

लेखिका - पूजा डबास 

मेरा गांव है शहर से निराला   



तेरी बुराइयों को हर अख़बार कहता है, 

और तू मेरे गांव को गवार कहता है।  

ऐ शहर मुझे तेरी औकात पता है, 

तू चुल्लू भर पानी को वाटर पार्क कहता है।  

थक गया हर शख्स काम करते करते ,

तू इसे अमीरी का बाजार कहता है। 

गांव चलो वक्त ही वक्त है सबके पास, 

तेरी सारी फुरसत तेरा इतवार कहता है।  

एक पिता और बेटी की कहानी 

बड़े बड़े मसले हल करती है यहां पंचायते, 

तू अंधी भ्र्ष्ट दलीलों को दरबार कहता है। 

बैठ जाते है अपने पराये साथ बैलगाड़ी में ,

पूरा परिवार भी बैठ न पाए तू उसे कार कहता है।  

अब बच्चे भी बड़ो का आदर भूल बैठे है ,

तू इस दौर को संस्कार कहता है। 

गरीबी - एक तस्वीर में बयाँ होती हुई

बच्चा जवान थैली और पाउडर का दूध पीकर होता है ,

मेरे गांव में भैंस और गाय का दूध पीकर जवान होता है। 

तेरे यहां अंग्रेजी भाषा में बकबक करते है,

और हम गांव की भाषा को समझते है। 

जिन्दा है आज भी गांव में देश की संस्कृति, 

तू भूल के सभ्यता खुद को तू शहर कहता है।   

तू धूल से मुँह को ढकता है ,

हम आज भी मिटटी को सर माथे लगाते है। 

तू किसान को ग्वार कहता है ,

और वही किसान अनाज से तेरा पेट भरता है। 

तू छोटे और फटे कपड़े पहनता है ,

और हम अपनी सभ्यता का पहनावा पहनते है। 

हम देसी घी रोटी और साग कहते है ,

और तुम फ़ास्ट फ़ूड को खाना कहते हो। 

शहर के नौकरी करने दूसरे देश जाते है,

गांव के सीमा पर अपने देश की सुरक्षा करते है। 

आज इस गांव और सभ्यता की वजह से 

जय जवान और जय किसान का देश है अपना,

पर ऐ शहर तेरी राजनीती ने इस नारे का अपमान किया,  

जवान और किसान को ही आपस में  लड़वा दिया। 

थोड़ी ख़ुशी थोड़ा गम - ख़ुशी और गम का सफर 


आपको यह कविता गांव और शहर के बीच की कैसी लगी, इसकी लेखिका पूजा डबास है और मुझे यह कविता बहुत अच्छी लगी तो सोचा आप लोगो के साथ शेयर करू और आपको भी अच्छी लगे  तो इसे शेयर जरूर करे और आप भी ऐसी कविता और कहानी लिखते है और पोस्ट करवाने चाहते हो तो हमे हमारी मेल पर भेजे npccolguy1@gmail.com हम आपकी उस कहानी और कविता को अपने ब्लॉग में लिखेंगे और पोस्ट करेंगे। आपका अपना ब्लॉग www.idealjaat.com 

धन्यवाद 
आपका नवी 

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