मेरा गांव है शहर से निराला - गांव की सभ्यता

लेखिका - पूजा डबास 

मेरा गांव है शहर से निराला   



तेरी बुराइयों को हर अख़बार कहता है, 

और तू मेरे गांव को गवार कहता है।  

ऐ शहर मुझे तेरी औकात पता है, 

तू चुल्लू भर पानी को वाटर पार्क कहता है।  

थक गया हर शख्स काम करते करते ,

तू इसे अमीरी का बाजार कहता है। 

गांव चलो वक्त ही वक्त है सबके पास, 

तेरी सारी फुरसत तेरा इतवार कहता है।  

एक पिता और बेटी की कहानी 

बड़े बड़े मसले हल करती है यहां पंचायते, 

तू अंधी भ्र्ष्ट दलीलों को दरबार कहता है। 

बैठ जाते है अपने पराये साथ बैलगाड़ी में ,

पूरा परिवार भी बैठ न पाए तू उसे कार कहता है।  

अब बच्चे भी बड़ो का आदर भूल बैठे है ,

तू इस दौर को संस्कार कहता है। 

गरीबी - एक तस्वीर में बयाँ होती हुई

बच्चा जवान थैली और पाउडर का दूध पीकर होता है ,

मेरे गांव में भैंस और गाय का दूध पीकर जवान होता है। 

तेरे यहां अंग्रेजी भाषा में बकबक करते है,

और हम गांव की भाषा को समझते है। 

जिन्दा है आज भी गांव में देश की संस्कृति, 

तू भूल के सभ्यता खुद को तू शहर कहता है।   

तू धूल से मुँह को ढकता है ,

हम आज भी मिटटी को सर माथे लगाते है। 

तू किसान को ग्वार कहता है ,

और वही किसान अनाज से तेरा पेट भरता है। 

तू छोटे और फटे कपड़े पहनता है ,

और हम अपनी सभ्यता का पहनावा पहनते है। 

हम देसी घी रोटी और साग कहते है ,

और तुम फ़ास्ट फ़ूड को खाना कहते हो। 

शहर के नौकरी करने दूसरे देश जाते है,

गांव के सीमा पर अपने देश की सुरक्षा करते है। 

आज इस गांव और सभ्यता की वजह से 

जय जवान और जय किसान का देश है अपना,

पर ऐ शहर तेरी राजनीती ने इस नारे का अपमान किया,  

जवान और किसान को ही आपस में  लड़वा दिया। 

थोड़ी ख़ुशी थोड़ा गम - ख़ुशी और गम का सफर 


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धन्यवाद 
आपका नवी 

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